आर्य और दस्यु
दस्युओं के रहन-सहन के ढंग से भी आर्य
उनके बैरी बन गए। ऐसा लगता है कि आर्यों का पशुपालन आधारित जनजातीय और अस्थायी
जीवनक्रम देशीय संस्कृति के स्थायी एवं शहरी जीवन से बेमेल था। आर्यों का जीवन प्रधानतया
जनजातीय जीवन था, जो गण, सभा, समिति और विदथ जैसी विभिन्न सामुदायिक संस्थाओं के माध्यम से रूपायित
हुआ है और जिसमें यज्ञ का बहुत महत्त्वपूर्ण
स्थान था। किन्तु दस्युओं को यज्ञ से कोई सरोकार नहीं था। दासों के साथ भी यही बात
थी, क्योंकि इन्द्र के बारे में बताया
गया है कि वह दास और आर्य का विभेद करते हुए यज्ञस्थल में आता था। ऋग्वेद के सातवें मंडल का एक
सम्पूर्ण सूक्त अक्रतुन, अश्रद्धान्, अयज्ञान् और अयज्वान: जैसे विशेषणों की शृंखला मात्र है।
इनका प्रयोग दस्युओं के लिए पुरज़ोर तौर पर यह सिद्ध करने के लिए किया गया है कि
उनको यज्ञ पसन्द नहीं था। इन्द्र से कहा गया है कि वे
यज्ञपरायण आर्य और यज्ञविमुख दस्युओं
के बीच अन्तर करें। ‘अनिंद्र’ शब्द का प्रयोग भी कई स्थलों पर किया गया है, और अनुमानत: इससे दस्युओं, दासों और सम्भवत: कुछ भिन्न मतावलम्बी
आर्यों का बोध होता है। आर्यों के कथनानुसार दस्यु तिलस्मी जादू करते थे। ऐसा मत अथर्ववेद में विशेष रूप से
व्यक्त किया गया है। यहाँ दस्युओं को भूत - पिशाच के रूप में प्रस्तुत किया गया है
और उन्हें यज्ञ - स्थल से भगाने की
चेष्टा की गई है। कहा जाता है कि ‘अंगिरस’ मुनि के पास एक परम
शक्तिशाली रक्षा कवच था, जिससे वह दस्युओं के क़िले को ध्वस्त कर सकते थे। ऋग्वैदिक काल में
उन्होंने जो लड़ाइयाँ लड़ी थीं, उनके कारण ही अथर्ववेद में दस्युओं को
दुष्टात्मा के रूप में चित्रित किया गया है। अथर्ववेद में कहा गया है कि
ईश्वर के निन्दक दस्युओं को बलि वेदी पर चढ़ा दिया जाना चाहिए। ऐसा विश्वास था कि
दस्यु विश्वासघाती होते हैं, वे आर्यों की तरह धर्म-कर्म नहीं करते और उनमें मानवता नहीं होती।
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