ईस्ट इण्डिया कम्पनी
एक निजी व्यापारिक कम्पनी थी, जिसने 1600 ई. में शाही अधिकार पत्र द्वारा व्यापार करने का अधिकार प्राप्त कर लिया था। इसकी स्थापना 1600 ई. के अन्तिम दिन महारानी एलिजाबेथ प्रथम के एक घोषणापत्र द्वारा हुई थी। यह लन्दन के व्यापारियों की कम्पनी थी, जिसे पूर्व में व्यापार करने का एकाधिकार प्रदान किया गया था। कम्पनी का मुख्य उद्देश्य धन कमाना था। 1708 ई. में ईस्ट इण्डिया कम्पनी की प्रतिद्वन्दी कम्पनी 'न्यू कम्पनी' का 'ईस्ट इण्डिया कम्पनी' में विलय हो गया। परिणामस्वरूप 'द यूनाइटेड कम्पनी ऑफ़ मर्चेंट्स ऑफ़ इंग्लैण्ड ट्रेडिंग टू ईस्ट इंडीज' की स्थापना हुई। कम्पनी और उसके व्यापार की देख-रेख 'गर्वनर-इन-काउन्सिल' करती थी। 1608 ई. में कम्पनी का पहला व्यापारिक पोत सूरत पहुँचा, क्योंकि कम्पनी अपने व्यापार की शुरुआत मसालों के व्यापारी के रूप में करना चाहती थी।
व्यापार के लिए संघर्ष
कम्पनी ने सबसे पहले व्यापार की शुरुआत मसाले वाले द्वीपों से की। 1608 ई. में उसका पहला व्यापारिक पोत सूरत पहुँचा, परन्तु पुर्तग़ालियों के प्रतिरोध और शत्रुतापूर्ण रवैये ने कम्पनी को भारत के साथ सहज ही व्यापार शुरू नहीं करने दिया। पुर्तग़ालियों से निपटने के लिए अंग्रेज़ों को डच ईस्ट इण्डिया कम्पनी से सहायता और समर्थन मिला और दोनों कम्पनियों ने एक साथ मिलकर पुर्तग़ालियों से लम्बे अरसे तक जमकर तगड़ा मोर्चा लिया। 1612 ई. में कैप्टन बोस्टन के नेतृत्व में अंग्रेज़ों के एक जहाज़ी बेड़े ने पुर्तग़ाली हमले को कुचल दिया और अंग्रेज़ों की ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने सूरत में व्यापार शुरू कर दिया। 1613 ई. में कम्पनी को एक शाही फ़रमान मिला और सूरत में व्यापार करने का उसका अधिकार सुरक्षित हो गया। 1622 ई. में अंग्रेज़ों ने ओर्मुज पर अधिकार कर लिया, जिसके फलस्वरूप वे पुर्तग़ालियों के प्रतिशोध या आक्रमण से पूरी तरह सुरक्षित हो गये।
कम्पनी की सफलताएँ
1615-18 ई. में सम्राट जहाँगीर के समय ब्रिटिश नरेश जेम्स प्रथम के राजदूत सर टामस रो ने ईस्ट इण्डिया कम्पनी के लिए कुछ विशेषाधिकार प्राप्त कर लिये। इसके शीघ्र बाद ही कम्पनी ने मसुलीपट्टम और बंगाल की खाड़ी स्थित अरमा गाँव नामक स्थानों पर कारख़ानें स्थापित किये। किन्तु कम्पनी को पहली महत्त्वपूर्ण सफलता मार्च, 1640 ई. में मिली, जब उसने विजयनगर शासकों के प्रतिनिधि चन्द्रगिरि के राजा से आधुनिक चेन्नई नगर का स्थान प्राप्त कर लिया। जहाँ पर उन्होंने शीघ्र हीसेण्ट जार्ज क़िले का निर्माण किया। 1661 ई. में ब्रिटेन के राजा चार्ल्स द्वितीय को पुर्तग़ाली राजकुमारी से विवाह के दहेज में बम्बई का टापू मिल गया। चार्ल्स ने 1668 ई. में इसको केवल 10 पाउण्ड सालाना किराये पर ईस्ट इण्डिया कम्पनी को दे दिया। इसके बाद 1669 और 1677 ई. के बीच कम्पनी के गवर्नर जेराल्ड आंगियर ने आधुनिक बम्बई नगर की नींव डाली।
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