Sunday, May 8, 2011

चीखं

चीखं ,
संभाले रखूं चीख मेरी आखरी बची हुई।
ये गई ,वो गई, हर चीख मेरी सच्ची हुई॥
कोई खा रहा था, किसी का पेट काटकर,
कोई नहा रहा था, बरसात जो बची हुई॥
चल रहे थे साथ मिलकर, एक आगे सटक गया,
बाकि हाथ मलते रहे, दूजे कहें ये अच्छी हुई॥
हमें तो अपनों ने मारा, गेरों में कहाँ दम था ,
पता भी न चला , न पहचान उबरी दबी हुई॥
चीखों में चीखे निकलती रही, हर बार क़यामत आती रही,
शमशान से दुरी कम न रही, बस बर्बाद कभी न कमी हुई॥
संभालें रखूं चीख मेरी आखरी बची हुई।
ये गई, वो गई, हर चीख मेरी सच्ची हुई॥
सव-रचित- भजन सिंह घारू

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